होली एक ऐसा रंगबिरंगा त्योहार है, जिसे हर धर्म के लोग पूरे उत्साह और मस्ती के साथ मनाते हैं। हिन्दू धर्म में होली का बड़ा महत्व है। हिंदू धर्म में कई प्राचीन व्रत एवं त्योहार मनाए जाते हैं, जिनमें से होली को सबसे प्राचीन पर्व माना जाता है। खुशियों के इस त्यौहार का संबंध भगवान श्री कृष्ण और भगवान विष्णु के भक्त प्रह्लाद से जुड़ा है। होली पर्व के दिन देशभर में गुलाल और अबीर से रंगों की होली खेली जाती है और रंगोत्सव को हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। रंगों के इस पवित्र त्योहार को वसंत ऋतु का संदेशवाहक भी माना जाता है।
हिंदू पंचांग के अनुसार, फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि से होली पर्व की शुरुआत होती है। होली पर्व से एक दिन पहले होलिका दहन का आयोजन किया जाता है और अगले दिन रंग वाली होली धूमधाम से खेली जाती है। होली पर्व का वर्णन नारद पुराण और भविष्य पुराण जैसे प्राचीन हस्तलिपियों में और धार्मिक ग्रंथों में भी किया गया है। संस्कृत और अवधि के कई प्रसिद्ध एवं प्राचीन महाकवियों ने भी अपनी कविताओं में होली का उल्लेख किया है। इसके साथ भारत के विभिन्न हिस्सों में ऐसे कई प्राचीन धरोहर मौजूद हैं, जहां होली से जुड़ी कलाकृतियों को दर्शाया गया है।
धर्म ग्रन्थों एवं शास्त्रों में होली से जुड़ी कथा एवं कहानियों को अंकित किया गया है। जिनमें से भक्त प्रह्लाद और भगवान श्री हरि की कथा सबसे प्रचलित है। पौराणिक धर्म-ग्रंथों में बताया गया है कि हिरण्यकश्यपु की बहन होलिका (जिसे कभी ना जलने का वरदान था) जब भक्त प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्नि में बैठ गई। तब भगवान विष्णु ने हिरण्यकश्यपु के षड्यंत्र को नष्ट करते हुए होलिका को भस्म कर दिया और भक्त प्रह्लाद श्रीहरि की कृपा से बच गए थे। तब से होलिका दहन को बड़े स्तर पर आयोजित किया जाता है।
कुछ धर्माचार्य यह भी बताते हैं कि जब भगवान श्री कृष्ण ने पूतना नामक राक्षसी का वध किया था, उसकी खुशी में सभी गांव वालों ने होली का पर्व हर्षोल्लास के साथ मनाया था। साथ ही इस बात का भी वर्णन मिलता है कि भगवान श्रीकृष्ण ने पूर्णिमा तिथि के दिन ही गोपियों के साथ रास-लीला रचाई थी और अगले दिन रंग वाली होली खेली थी। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार होलिका दहन करने से और होली के दिन भगवान श्री कृष्ण, श्री हरि और कुल देवी-देवताओं की पूजा करने से सभी नकारात्मक शक्तियों का नाश हो जाता है और जीवन में सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है।
होली केवल हम नहीं मनाते बल्कि पूरी प्रकृति मनाती है। वसंत आते ही पूरी प्रकृति अपनी सुंदरता के चरम पर होती हैं। चारों ओर खुशहाली और हरियाली छाने लगती हैं। टहनियों पर खिलते हुए टेसू के फूल, पतझड़ के बाद आते हुए नए पत्ते, साफ नीला आसमान, खेतों में लहराती सरसों उत्सव मनाते प्रतीत होते है। इस समय प्रकृति मानो किसी दुल्हन सी खिल उठती हैं। होली नए सृजन की भी प्रतीक है, क्योंकि पतझड़ के बाद होली से ही प्रकृति फिर हरी-भरी हो जाती है। होली मनाने का वैज्ञानिक कारण भी है। सर्दियों में हमारी त्वचा रूखी और बेजान हो जाती है और पतझड़ के मौसम में ये रूखापन और बढ़ जाता है। पहले के समय में प्राकृतिक रंगों से होली खेली जाती थी, उसके बाद जब नहाया जाता था तो त्वचा की मृत कोशिकाएं व रूखापन दूर हो जाता था।
भारत के अधिकांश प्रदेशों में होली का त्योहार अलग-अलग नाम और रूप से मनाया जाता है। जहां एक तरफ ब्रज की होली आकर्षण का केंद्र होती है, वहीं बरसाने की लठमार होली को देखने के लिए भी दूर-दूर से लोग आते हैं। मथुरा और वृंदावन में 14 दिनों तक होली धूमधाम से मनाई जाती है। इनके अलावा बिहार में फगुआ, छत्तीसगढ़ में होरी, हरियाणा में धुलंडी खेली जाती हैं। कुमाऊं की गीत बैठकी में शास्त्रीय संगीत की गोष्ठियां होती है। हरियाणा की धुलंडी में भाभी द्वारा देवर को सताए जाने की प्रथा है। बंगाल की दोल जात्रा चैतन्य महाप्रभु के जन्मदिन के रूप में मनाई जाती है। इसके अतिरिक्त महाराष्ट्र की रंग पंचमी में सूखा गुलाल खेलने, गोवा के शिमगो में जलूस निकालने के बाद सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन और पंजाब के होला मोहल्ला में सिक्खों द्वारा शक्ति प्रदर्शन की परंपरा है। तमिलनाडु की कमन पोडिगई मुख्य रूप से कामदेव की कथा पर आधारित बसंतोत्सव है। जबकि मणिपुर के याओसांग में योगसांग उस नन्हीं झोपड़ी का नाम है जो पूर्णिमा के दिन प्रत्येक नगर-ग्राम में नदी अथवा सरोवर के तट पर बनाई जाती है। ऐसे ही अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग नामों से होली का पर्व हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है।
प्यार भरे रंगों से सजा यह पर्व हर धर्म, संप्रदाय, जाति के बंधन खोलकर भाई-चारे का संदेश देता है। इस दिन सभी लोग अपने पुराने गिले-शिकवे भूल कर गले लगते हैं और एक दूजे को गुलाल लगाते हैं। बच्चे और युवा रंगों से खेलते हैं। घरों में औरतें एक दिन पहले से ही मिठाई, गुझिया आदि बनाती हैं व अपने पास-पड़ोस में आपस में बांटती हैं। बच्चों के लिए तो यह त्योहार विशेष महत्व रखता है। वह एक दिन पहले से ही बाजार से अपने लिए तरह-तरह की पिचकारियां व गुब्बारे लाते हैं। बच्चे गुब्बारों व पिचकारी से अपने मित्रों के साथ होली का आनंद उठाते हैं। कई लोग होली की टोली बनाकर निकलते हैं उन्हें हुरियारे कहते हैं।
प्राचीन काल में होली चंदन और गुलाल से ही खेली जाती थी, लेकिन समय के साथ- साथ इसमें बदलाव आता गया और वर्तमान समय में केमिकल वाले रंगों का भी उपयोग किया जाने लगा। आजकल अच्छी क्वॉलिटी के रंगों का प्रयोग नहीं होता और त्वचा को नुकसान पहुंचाने वाले रंग खेले जाते हैं। बाजार में जो रंग मिलते हैं, उसमें कई प्रकार के हानिकारक रसायन मिलाए जाते हैं जो हमारे जीवन के रंग में भंग का काम कर सकते है। इससे त्वचा को भारी नुकसान भी हो सकता है। इस मनभावन त्यौहार पर रासायनिक रंग व नशे आदि से दूर रहना चाहिए और मिलजुलकर पूरे उल्लास के साथ होली मनानी चाहिए।
होली सिर्फ रंगों का त्योहार नहीं, बल्कि जीवन में नई ऊर्जा और सकारात्मकता का प्रतीक है। यह हमें सिखाती है कि जैसे रंग सभी भेदभाव मिटाकर हर व्यक्ति को एक जैसा सजा देते हैं, वैसे ही हमें भी समाज में सभी के साथ समानता और प्रेम से रहना चाहिए। यह पर्व न केवल हमारी संस्कृति और परंपराओं को जीवंत बनाए रखता है, बल्कि उत्साह, उमंग और मेल-जोल का भी संदेश देता है। हमें चाहिए कि हम इसे शुद्ध हृदय से मनाएं, प्राकृतिक रंगों का उपयोग करें और पर्यावरण की सुरक्षा का भी ध्यान रखें। इस अवसर पर खुशियाँ बाँटें, अपने प्रियजनों के साथ समय बिताएँ और जीवन को सकारात्मकता के रंगों से भर दें।
-देशना जैन
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